ब्रम्ह (काल) और आष्टांगीं (दुर्गा जी) पति-पत्नी हैं ? आइए आंखों देखे प्रमाण के साथ साबित करते हैं। जब हम स्वयं से प्रश्न करते हैं ,कि मैं कौ...
जब हम स्वयं से प्रश्न करते हैं ,कि मैं कौन हूं ,तो उत्तर मिलता है ,मैं ब्रम्ह हूं।और स्त्रियों के बारे में कहा जाता है ,कि वह दुर्गा का रूप हैं।अर्थात ब्रम्ह और दूर्गा के भेद (रहस्य) को जानने के लिए हमें इस नाशवान शरीर (पिंड) को जानना होगा ,जोकि हमने पहन रखा है।यानि प्रत्येक पुरुष शरीर ब्रम्ह है।और प्रत्येक स्त्री शरीर दुर्गा है, तथा ब्रम्ह दुर्गा पर आसक्त है यानि,(मोहित) और दुर्गा ब्रम्ह पर जैसे कि पुरूष स्त्री पर आसक्त है ।और स्त्री पुरुष पर,लेकिन हम स्वयं को ही कर्ता मान लेते हैं अर्थात इस नाशवान शरीर और विकार ग्रस्त इंद्रियों के कर्म में स्वयं को कर्ता देखना ही भारी भूल है।
क्यूंकि वास्तव में हम अर्थात आत्मा तो कर्म रहित हैं।और अपने जनक परमात्मा के अमर लोक से आईं हैं ।जोकि शब्द लोक है और ये काल लोक अर्थात कर्म लोक है। जब तक हमें ऐसा सतगुरु नहीं मिलता जो ,नो मन सूत ,को सुलझा देता है अर्थात इस नो द्वारों वाले इस नाशवान पिंड (शरीर) का रहस्य समझा देता है तब तक जन्म-मरण का दीर्घ रोग नहीं कटेगा।
कारण ब्रम्ह (काल) खाने वाला है।और उसकी पत्नी दुर्गा जी (आदिमाया) है और इसी आदि माया और ब्रम्ह के मिलन से त्रिगुणी माया (रजगुण ब्रह्मा जी, सत्व गुण बिष्णु जी, तथा तमगुण शंकर जी) का आविर्भाव हुआ है। तथा तीनों देवता परमात्मा के विधान से हम सभी अंजान हैं ,इसलिए स्वयं ही कहते हैं कि विधि का लिखा मेटना हमारे वस की बात नहीं है।
उत्पत्ति और संघार हेतू ही हैं। ब्रह्मा ,विष्णु ,शिव का पिता काल हैं ,जो कि दुर्गा का पति काल हैं । मृत लोगों को खाता हैं ।ब्रह्म (ऊं) खाने वाला है। इसी ब्रम्ह ने गीता ज्ञान देते समय स्पष्ट कहा है ,कि ब्रह्मलोक तक सब कुछ पुनरावृत्ति में नाशवान है।इस ब्रम्हलोक काल लोक यानि मृत्युलोक में ब्रम्ह तो पहला पुरुष है ,और दुर्गा पहली स्त्री है। इसलिए गीता में इसी ब्रम्ह ने कहा है कि मैं तो लोकवेद के आधार पर पुरूषोत्तम कहलाता हूं।कारण यह है ,कि ब्रम्ह हम मनुष्यों तथा देवी-देवताओं , त्रिदेवों तथा देवी से भी उत्तम हैं ।
लेकिन वास्तव में पुरूषोत्तम तो कोई अन्य और ही है ,जो तीनों लोकों (स्वयं के अमरलोक सहित असंख्य ब्रह्मांड में पर-ब्रम्ह के 7 संख ब्रम्हांड में तथा काल ब्रम्ह "ऊं" के 21 ब्रह्मांड में सबका धारण-पोषण करता है। वही सबका कुल मालिक कहलाता है ।यानी कि एकमात्र अजर-अमर अविनाशी परमात्मा है।और बाकि सब नाशवान जड़ वर्ग है। क्रम को समझने के लिए कृपया पीपल के पेड़ को समझें।
जैसे पृथ्वी के बाहर का भाग अर्थात तना काटने पर भी पेड़ पुनः जम आता है। फिर उस पर पुनः डार ,टहनियां ,पत्ते-फूल-फल आदि लगते हैं।क्यूंकि पेड़ के प्राण तो गहराई में अर्थात जड़ में है। जिससे सम्पूर्ण बृक्ष को शक्ति मिल रही है। अब इस पेड़ को उल्टा करके समझें यानि जड़ जिससे सम्पूर्ण बृक्ष को शक्ति मिल रही है ।वह अविनाशी परमात्मा तो सबसे ऊपर के लोकों में बैठा है।उसी पूर्ण ब्रम्ह (परम अक्षर पुरुष) से पर-ब्रम्ह (क्षर-पुरुष) को तथा अन्य मायावी भगवानों को शक्ति मिल रही है।ठीक इसी प्रकार हमारा शरीर है।जिसमें प्राण गहराई में अर्थात ह्रदय में हैं, जिससे सम्पूर्ण शरीर को शक्ति मिल रही है।ह्रदय कमल में ही हम और हमारा भगवान रह रहा है।जबकि अन्य हिस्सों में अन्य भूत समुदाय रह रहा है।
अतः जब हम स्वयं को इस नाशवान पिंड में खोज लेते हैं ,तभी हम परमात्मा को पाने लायक बनते हैं।और यही तत्वज्ञान कहलाता है।अतः बिना तत्वज्ञान स्वयं की जानकारी के परमात्मा को पाना असम्भव है। अब देखते हैं तत्वज्ञान कैसे प्राप्त होता है।जब हमारी जीवन लीला शुरू होती है।तो हमारी मां हमें बोलना सिखाती ।है अतः वह पहली गुरु हुई।पिता अंगुली पकड़कर चलना सिखाता है अतः वह दूसरा गुरु हुआ। कुछ बड़े होने पर हम स्कूल जाते हैं वहां पर टीचर हमें अक्षर ज्ञान सिखाता है वह तीसरा गुरु हुआ।लेकिन आध्यमिक गुरु अर्थात सतगुरु का दर्जा तो सबसे बड़ा है,, क्यूंकि वह हम आत्माओं को जीना सिखाते है। जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी। क्यूंकि हर बार मृत्यु आतीं हैं ।शरीर में जैसे हम (कपड़े) बदलते हैं उसी तरह आत्मा भी बदलती रहती हैं ,हम नहीं आत्मा तो कर्मफल भोगने के लिए हमेशा जिंदा रहती हैं। बिना सतगुरु मिले तत्वज्ञान होना असम्भव है ।हम बहुत भाग्यशाली हैं सद्गुरू हमारे साथ हैं अब असली में उन का तत्व ज्ञान मेरे रोम रोम समा गया हैं ।सत्य ज्ञान से बड़ कर कुछ भी नहीं ।
जगतगुरु तत्वदर्शी संत महबूब जी महाराज ।
कबीर- सात दीप नौ खंड में गुरू से बढ़ा ना कोय,
कर्ता करे ना कर सके, गुरु करें सो होए ।
कबीर- गुरु बिन माला फेरते,गुरु बिन देते दान,
कहैं कबीर सब मिथ्या हैं, चाहें पूछों वेद-पुराण।
जय हो बन्दी छोड़ की,जगत के तारणहार परम पिता की,नज़रें सदैव हमारे साथ ओरा बनकर हमारे साथ साथ मौजूद हैं ,अच्छे कर्म करके अपनी जीवन यात्रा को सार्थक बनायें । https://www.myjiwanyatra.com/2022/06/blog-post_21.html
कबीर- सात दीप नौ खंड में गुरू से बढ़ा ना कोय,
कर्ता करे ना कर सके, गुरु करें सो होए ।
कबीर- गुरु बिन माला फेरते,गुरु बिन देते दान,
कहैं कबीर सब मिथ्या हैं, चाहें पूछों वेद-पुराण।
जय हो बन्दी छोड़ की,जगत के तारणहार परम पिता की,नज़रें सदैव हमारे साथ ओरा बनकर हमारे साथ साथ मौजूद हैं ,अच्छे कर्म करके अपनी जीवन यात्रा को सार्थक बनायें । https://www.myjiwanyatra.com/2022/06/blog-post_21.html
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