पहली आरती हरि दरबारे,तेजपुनज जहां प्राण उधारे । पाती पंच पौहप कर पूजा,देब निंरजन और न दूजा । खण्ड खण्ड में आरती गाजै ,सकलमयी हरि जोति वि...

पहली आरती हरि दरबारे,तेजपुनज जहां प्राण उधारे ।
पाती पंच पौहप कर पूजा,देब निंरजन और न दूजा ।
खण्ड खण्ड में आरती गाजै ,सकलमयी हरि जोति विराजै।
शान्ति सरोवर मंज़न कीजे, जत की धोती तन पर लीजै ।
ग्यान अँगोछा मैल न राखें, धर्म जनेऊ सत मुख भाषै ।
दया भाव तिलक मस्तक दूजा ,प्रेम भक्ति का अचमन लीजै ।
जो नर ऐसी कार कमावै ,कंठी माला सहज समावे ।
गायत्री सो जो गिनती खोवै , तर्पण सो जो तमक न होवै ।
संध्या सो जो सिन्ध पिछानै ,मन पसरे कुं घट में आने ।
सो संध्या हमरे मन मानी ,कहैं कबीर सुनो रे ज्ञानी ।
ऐसी आरती त्रिभुवन तारे ,तेजपुनज जहाँ प्राण उधारे।
पाती पचं पौहप कर पूजा ,देव निरंजन और न दूजा ।
अनहद नाद पिंड ब्रह्मणडां,बाजत अहर निस सदा अखण्डा।
गगन थाल जहां उड़गन मोती , चंद सूर जहां निर्मल जोती ।
तन मन धन सब अर्पण कीनहां परम पुरुष जिन आत्म चिन्हा ।
प्रेम प्रकाश भया उजियारा, कहैं कबीर मैं दास तुम्हारा ।
संध्या आरती करो विचारी ,काल दूत जम रहैं झख मारी ।
लागया सुषमण कूँची तारा , अनहद शब्द उठै झनकारा ।
उन मुनि संयम अगम घर जाई ,अछै कमल में रहता समाई ।
त्रैकुटी संयज कर ले दर्शन, देखत निरख़त मन होय प्रसन।
प्रेम मगन होय आरती गाावै, कहैं कबीर भोजल बहुर न आवै ।
हरि दर्ज़ी का मर्म न पाया , जिन यौह चोला अजब बनाया ।
पानी की सुई पवन का धागा नौ दस मांस सीमते लागा ।
पाँच तत्व की गुदरी बनाई ,चन्द सूर दो थिगरी लगाई ।
कोटि जतन कर मुकुट बनाया ,बिच बिच हीरा लाल लगाया ।
आपै सीवै आपे बनावैं ,प्राण पुरुष कुं ले पहरावैं ।
कहे कबीर सोई जन मेरा, नीर खीर का करे निबेरा।
राम निरंजन आरती तेरी ,अबिगत गति कुछ ।
समझ पड़े नहीं, कयूं पहुचें मति मेरी ।
नराकार निर्लेप निरंजन ,गुणह अतीत तिहूं देवा ।
ज्ञान ध्यान से रहैं निराला ,जानी जाय न सेवा ।
सनक सनंदन नारद मुनिजन , शेष पार नहीं पावै ।
शंकर ध्यान धरें निषवासर, अजहूं ताहि सुलझावों ।
सब सुमरैं अपने अनुमाना , तो गति लखी न जाई ।
कहैं कबीर कृपा कर जन पर ,ज्यों है त्यों समझाई ।
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