आरती —1 - My Jiwan Yatra(Manglesh Kumari )

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आरती —1

पहली आरती हरि दरबारे,तेजपुनज जहां प्राण उधारे । पाती पंच पौहप कर पूजा,देब निंरजन और न दूजा । खण्ड खण्ड में आरती गाजै ,सकलमयी हरि जोति वि...









पहली आरती हरि दरबारे,तेजपुनज जहां प्राण उधारे ।

पाती पंच पौहप कर पूजा,देब निंरजन और न दूजा ।

खण्ड खण्ड में आरती गाजै ,सकलमयी हरि जोति विराजै।

शान्ति सरोवर मंज़न कीजे, जत की धोती तन पर लीजै ।

ग्यान अँगोछा मैल न राखें, धर्म जनेऊ सत मुख भाषै ।

दया भाव तिलक मस्तक दूजा ,प्रेम भक्ति का अचमन लीजै ।

जो नर ऐसी कार कमावै ,कंठी माला सहज समावे ।

गायत्री सो जो गिनती खोवै , तर्पण सो जो तमक न होवै ।

संध्या सो जो सिन्ध पिछानै ,मन पसरे कुं घट में आने ।

सो संध्या हमरे मन मानी ,कहैं कबीर सुनो रे ज्ञानी ।

ऐसी आरती त्रिभुवन तारे ,तेजपुनज जहाँ प्राण उधारे।

पाती पचं पौहप कर पूजा ,देव निरंजन और न दूजा ।

अनहद नाद पिंड ब्रह्मणडां,बाजत अहर निस सदा अखण्डा।

गगन थाल जहां उड़गन मोती , चंद सूर जहां निर्मल जोती ।

तन मन धन सब अर्पण कीनहां परम पुरुष जिन आत्म चिन्हा ।

प्रेम प्रकाश भया उजियारा, कहैं कबीर मैं दास तुम्हारा ।

संध्या आरती करो विचारी ,काल दूत जम रहैं झख मारी ।

लागया सुषमण कूँची तारा ,  अनहद शब्द उठै झनकारा ।

उन मुनि संयम अगम घर जाई ,अछै कमल में रहता समाई ।

त्रैकुटी संयज कर ले दर्शन, देखत निरख़त मन होय प्रसन।

प्रेम मगन होय आरती गाावै, कहैं कबीर भोजल बहुर न आवै ।

हरि दर्ज़ी का मर्म न पाया , जिन यौह चोला अजब बनाया ।

पानी  की सुई पवन का धागा नौ दस मांस सीमते लागा ।

पाँच तत्व की गुदरी बनाई ,चन्द सूर दो थिगरी लगाई ।

कोटि जतन कर मुकुट बनाया ,बिच बिच हीरा लाल लगाया ।

आपै सीवै आपे बनावैं ,प्राण पुरुष कुं ले पहरावैं ।

कहे कबीर सोई जन मेरा, नीर खीर का करे निबेरा।

राम निरंजन आरती तेरी ,अबिगत गति कुछ ।

समझ पड़े नहीं, कयूं पहुचें मति मेरी ।

नराकार निर्लेप निरंजन ,गुणह अतीत तिहूं देवा ।

ज्ञान ध्यान से रहैं निराला ,जानी जाय न सेवा ।

सनक सनंदन नारद मुनिजन , शेष पार नहीं पावै ।

शंकर ध्यान धरें निषवासर, अजहूं ताहि सुलझावों ।

सब सुमरैं अपने अनुमाना , तो गति लखी न जाई ।

कहैं कबीर कृपा कर जन पर ,ज्यों है त्यों समझाई ।
शेष कल—:

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