ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं । ब्रह्म ज्ञानी महाध्यानी, सत सुकृत द:ख भंजनं । मूल चक्र गणेश बासा , रक्त वर्ण जहां जानिये । कि...

ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं । ब्रह्म ज्ञानी महाध्यानी, सत सुकृत द:ख भंजनं ।
मूल चक्र गणेश बासा , रक्त वर्ण जहां जानिये । किलियं जाप कुलीन तज सब ,शब्द हमारा मानिये ।
सवाद चक्र ब्राह्मादि बासा , जहां सावित्री ब्रह्मा रहे । ऊँ जाप जपतं हंसा ज्ञान जोग सतगुरु कहैं ।
नाभि कमल में विष्णु विश्वभर,जहां लक्ष्मी संग बास है । हरिये जाप जपन्त हंसा ,जानत बिरला दास है ।
ह्रदय कमल महादेव देवं , सती पार्वती संग है । सोहं जाप जंपत हंसा , ज्ञान जोग भल रंग है ।
कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही । लील चक्र मध्य काल कर्मम ,आवत दम कुं फांसही ।
त्रिकूटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समर्थ आप है । मन पौना सम सिँध मेलों , सुरित निरति का जाप है ।
सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूँ फूलन मध्य गन्ध है । पुर रहा जगदीश जोगी ,संत समर्थ निबन्ध है ।
मिनी खोज हनोज हरदम ,उलट पन्थ की बाट है । इला पिंगुला सुषमन खोजो , चल हंसा औघट घाट है ।
ऐसा जोग विज़ोगे वरणो ,जो शंकर ने चित धरया। कुम्भक रेचक दादस पलटे,काल कर्म तिस तै डरया ।
सुन्न सिंघासन अमर आसन , अलख पुरुष निर्वान है ।अति लयौलीन बेदीन मालिक,कादर कुं क़ुर्बान है ।
है निरसिघ अबंध अबिगत,कोटी बुैकणठ नख रूप है ।अपरंपार दीदार दर्शन, ऐसा अजब अनूप है ।
घुरैं निसान अखण्ड धुन सुन , सोहं बेदी गाईये । बाजे नाद अगाध अग हैं, जहां ले मन ठहराइये ।
सुरति निरति मन पवन पलटे ,बंकनाल सम कीजिये । सरबै फूल असूल अस्थिर, अमी महारस पीजिये।
सपत पुरी मेरूदणड खोजो ,मन मनसा गह राखियों । उडहै भँवर आकाश गमंन ,पाँच पचीसो नाखिये।
गगन मण्डल की सैल कर ले ,बहुरि न ऐसा दांव है । चल हंसा परलोक पठाऊं,भौ सागर नहीं आव है ।
कन्दप जीत उदित जोगी,षट् कर्मी यौह खेल है । अनभे मालनि हार गूदे , सुरति निरति का मेल है ।
सोह जाप अजाप थरपो , त्रिकूटी सयंम धुनि लगै । मान सरोवर नहान हंसा ,गगं सहंस मुख जित बगै ।
कालइंद्री क़ुर्बान कादर ,अबिगत मूर्ति खूब है । छत्र सवेत विशाल लोचन , गलताना महबूब है ।
दिल अन्दर दीदार दर्शन , बाहर अनंत न जाइये । काया माया कहाँ बपुरी , तन मन शीश चढ़ाइये ।
अबिगत आदि जुगादि जोगी ,संत पुरुष है । गगन मंडल गलतान गैबी , जात अजात बेदीन है।
सुखसागर रत्नागर निर्भय, निज मुखबानी गवाही । झिन आकर अजोख निर्मल,दृष्टि मुष्टि नहीं आवही ।
झिल मिल नूर जहूर जोति ,कोटि पदम उजियार है । उलट नैन बेसुनय बिस्तर,जहाँ तहां दीदार है ।
अष्ट कमल दल सकल रमता , त्रिकुटी कमल मध्य निरख ही । स्वेत ध्वजा सुन्न गुमट आगै , पंचरंग झण्डे फ़र्क़ ही ।
सुन्न मंडल सतलोक चलिये , नौ दर मुँद बिसुनन है । दिव्य चिसमयो एक बिम्ब देखया , निज श्रवण सुनीधुनि है ।
चरण कमल में हंस रहते ,बहुरंगी बिरयाम हैं । सूक्ष्म मूर्ति श्याम सुरति ,अंचल अभंगी राम हैं ।
नौ सुर बन्ध निसंक खेलो , दसमें दर मुखमूल है । माली न कुप अनूप सजनी , बिन बेली का फूल है ।
स्वाँस उसवांस पवन कु पलटे , नाग फुनी कुं भूंच है । सुरति निरति का बाध बेड़ा ,गगन मण्डल कूं कूचं हैं ।
विश्व की सात अरब से ऊपर जन संख्या में कोई नही हैं ।सिवाये परमात्मा (कबीर ) जी के इस के अतिरिक्त किसी के पास सत्य ज्ञान, व भक्ति विधि नहीं है ।शब्द रूपी नाम लेकर सत्य लोक जानें की तैयारी हम कर सकते हैं ।प्रभु की इच्छा से सब कुछ आसान है ।हमें पूर्ण परमात्मा पर विश्वास होना चाहिये ।जीवन की बागडोर उसी के हाथ में हैं ।अपने पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए ।
No comments
Post a Comment