जाके दिल में हरि बसै, जो जन कलपै काहि । एक ही लहरि समुद्र की ,दुख दारिद्र बहि ज़ाहि । अर्थ —:कोई व्यक्ति क्यों दुखी होवै या रोय यदि उसके ह...
जाके दिल में हरि बसै, जो जन कलपै काहि ।
एक ही लहरि समुद्र की ,दुख दारिद्र बहि ज़ाहि ।
अर्थ —:कोई व्यक्ति क्यों दुखी होवै या रोय यदि उसके ह्रदय में प्रभु का निवास है। समुद्र के एक ही लहर से व्यक्ति के सारे दुख एंव दरिद्रता बह जायेगें ।
अब तु काहे को डरै सिर पर हरि का हाथ , हस्ती चढ़ा कर डोलिये , कूकर भूसे जन लाख ।
भावार्थ—: तुम क्यों डरते जब हरि का हाथ तुम्हारे सिर पर है। तुम हाथी पर चढ़ कर निर्भय भ्रमण करो। भले ही लाखों कुते तुम्हारी निन्दा में भौंके ।
आगे पीछे हरि खरा ,आप सम्भाले भार , जन को दुखी क्यों करे , समरथ सिरजन हार ।
अर्थ —:भगवान भक्त के आगे पीछे खड़े रहते हैं। वह स्वयं भक्त का भार अपने ऊपर ले लेते है। वे किसी भक्त को दुखी नहीं करना चाहते क्योंकि वे सर्व शक्ति मान है ।
बिसवासी हवै हरि भजय ,लोहा कंचन होये , राम भजे अनुराग से ,हरख सोक नहि दोय।
भावार्थ—:राम का भजन विश्वास पूर्वक करो -लोहा भी सोना हो जायेगा । यदि राम का भजन प्रेम पूर्वक किया जाये तो हर्ष और शोक दोनों कभी नहीं हो सकते ।लोहा से सोना का तात्पर्य व्यक्ति का परिष्कार है ।
कहै कबीर गुरू प्रेम बस ,क्या नियरै क्या दूर , जाका चित जासै बसै , सो तिहि सदा हजूर ।
अर्थ -: कबीर जी कहते हैं, कि जिसके ह्रदय में गुरू के प्रीति प्रेम रहता है ।वह न तो कभी दूर न ही निकट होता है ।जिस का मन चित जहाँ लगा रहता है ,वह सर्वदा गुरू के समुख ही हाज़िर रहता है ।
ना चाँद कि चाहत ,ना तारो कि फ़रमाइश इस जन्म में मोक्ष गुरू जी बस यही है ,( खवाइश )
गरीब,पतिव्रता चूके नहीं ,तन मन जावौं सीस ।
मोरधवज अपरन किया,सिर साटे जगदीश ।
मोरधवज अपरन किया,सिर साटे जगदीश ।
भावार्थ—: राजा मोरध्वज पतिव्रता जैसा भक्त था ।उस ने आपने लड़के ताम्रध्वज का सिर साधु रूप में उपस्थित श्रीकृष्ण
जी के कहने पर काट दिया यानि आरे ( करौंत ) से शरीर चीर दिया ।परमात्मा के पति के लिये मोरध्वज आत्मा ने अपने
अपने पुत्र को भी काटकर समर्पित कर दिया इस प्रकार प्रकार पतिव्रता आत्मा का परमेश्वर के लिये यदि तन मन शीश भी जायेतो उस अवसर को चूकती नहीं यानि हाथ से जानें नहीं देती ।ऐसे भक्त अपने ईष्टदेव के लिये सर्वश्रेष्ठ न्योछावर कर देना
होता हैं वह सच्चा भक्त हैं ।
आज के समय में संत समझाते है। जब कि अपनी महिमा बताते हुये ,परमात्मा जी ने हमें बताया कि वही सृष्टि के रचनहार है। चारों युगों में आते हैं ,आज परमात्मा की सम्पूर्ण जान कारी अपने मुखार कमलों से स्वयं बता रहे हैं। हम सभी भाग्य शाली है। वास्तविक हमारा मालिक बहुत ही दयालु है,अपने बच्चों का हर पल रक्षा करते हैं। एक हम ही हैं ।संसारिक बंधनों से घिरे हुए हैं।
ज़रा बाहर माया जाल से निकल कर देखो ,स्वर्ग ही है बशर्ते उस पूर्ण परमात्मा यूनिवर्सल के मालिक के हम बच्चे हैं उन की आज्ञा का पालन कर के अपने जीवन यात्रा को सफल बनाये ।उन की कृपा हर पल निरन्तर बरसतीं है ।अपनी आत्मायों पर
चाहे ,जानवरों हो ,पशुओं हो पंछी हो मनुष्य हो पेड़ पौधों पर बस हम बह ही काम करे जो मालिक जी को अच्छा लगता हो ।
भूलकर भी उन की आत्मा को दुःखी न करे ।
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