भलाई का ज़माना नहीं - My Jiwan Yatra(Manglesh Kumari )

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भलाई का ज़माना नहीं

एक बार एक शिकारी शिकार करने गया,शिकार नहीं मिला, थकान हुई। और एक वृक्ष के नीचे आकर सो गया। पवन का वेग अधिक था, तो वृक्ष की छाया कभी कम-ज्याद...



एक बार एक शिकारी शिकार करने गया,शिकार नहीं मिला, थकान हुई। और एक वृक्ष के नीचे आकर सो गया। पवन का वेग अधिक था, तो वृक्ष की छाया कभी कम-ज्यादा हो रही थी, डालियों के यहाँ-वहाँ हिलने के कारण।

वहीं से एक अति सुन्दर हंस उड़कर जा रहा था, उस हंस ने देखा कि वह व्यक्ति बेचारा परेशान हो रहा हैं, धूप उसके मुँह पर आ रही हैं। तो ठीक से सो नहीं पा रहा हैं, तो वह हंस पेड़ की डाली पर अपने पंख खोल कर बैठ गया। 

ताकि उसकी छाँव में वह शिकारी आराम से सोयें। जब वह सो रहा था। तभी एक कौआ आकर उसी डाली पर बैठा, इधर-उधर देखा और बिना कुछ सोचे-समझे शिकारी के ऊपर अपना मल विसर्जन कर वहाँ से उड़ गया। तभी शिकारी उठ गया और गुस्से से यहाँ-वहाँ देखने लगा ,और 
उसकी नज़र हंस पर पड़ी और उसने तुरंत धनुष बाण निकाला और उस हंस को मार दिया। हंस नीचे गिरा और मरते-मरते हंस ने कहा:- मैं तो आपकी सेवा कर रहा था, मैं तो आपको छाँव दे रहा था, आपने मुझे ही मार दिया ? इस में मेरा क्या दोष ? उस समय उस पद्मपुराण के शिकारी ने कहा: 
यद्यपि आपका जन्म उच्च परिवार में हुआ, आपकी सोच आपके तन की तरह ही सुंदर हैं, आपके संस्कार शुद्ध हैं, यहाँ तक की आप अच्छे इरादे से मेरे लिए पेड़ की डाली पर बैठ मेरी सेवा कर रहे थे, 
लेकिन आपसे एक गलती हो गयी, कि जब आपके पास कौआ आकर बैठा तो आपको उसी समय उड़ जाना चाहिए था। उस दुष्ट कौए के साथ एक घड़ी की संगत ने ही आपको मृत्यु के द्वार पर पहुंचाया हैं।
शिक्षा  —:
 भावार्थ—: संसार में संगति का सदैव ध्यान रखना चाहिये। हमारी सोच अच्छी होनी चाहिए किस के साथ उठना बैठना चाहिए मेल खाता हैं या नहीं यदि नहीं तो उठ कर चले जाना ही ( बेहतर ) हैं ।जो मन, कार्य और बुद्धि से परमहंस हैं l उन्हें कौओं की सभा से दूरी बनायें रखना चाहिये था।
 हम तो मनुष्य है ,ईश्वर ने हमे सोच ,बुद्धि ,ज्ञान ,भक्ति ,दी है। मालिक की आज्ञा में रह कर उन के बनाये हुये नियमो का पालिन करे। अपनी जीवन यात्रा को सफल बनाये।
                                         कबीर जिन हर जैसा सुमिरया ,ताको जैसा लाभ ।
                                         ओसा प्यास ना भाग ही जब तक धसै  नहीं आब ।
भावार्थ—: जो भक्त जैसी श्रद्धा से तथा नयूनता से भक्ति करता है ।उस को उतना ही साधना का लाभ होता हैं ,परमेश्वर 
कबीर जी ने सटीक उधारण दिया है ,कि जैसे ओस जल जो घास पर रात्रि के समय जमा होता हैं ।यदि कोई उस ओस के 
जल को जीभ से चाट कर ,शान्त करने के लिये आप अर्थात् पानी में धँसना पड़ेगा अर्थात् प्यास शान्त  करने ले लिये गिलास 
के गिलास जल पीना पड़ेगा ।धँसना का अर्थ हैं ,किसी तरल पदार्थ में खड़ा होना उदाहरण के लिये जब कोई दल दल गारा में 
प्रवेश कर जाता हैं ।तो कीचड़ उस के पैरों से चिपट जाती हैं ,उस को कहते हैं गारा में धँस गया दूसरा  उदाहरण यह याने जैसे 
कोई लालच में धँसा  है ।तो  उस का व्यवहार देख कर अन्य व्यक्ति कहते  कि यह तो लालच में धँसा हैं  इसी प्रकार ओस जल 
प्यास शान्त करने के लिये पर्याप्त नहीं होता प्यास शान्त करने के लिये अधिक जल पीना पड़ता हैं यानि दान धर्म करना पड़ेगा 
जैसे हमें तत्व ज्ञान ना होने के कारण रूई की पतली सी ज्योति घी में गीली -सुखी कर के जलाते हैं ।वह शीघ्र शान्त हो जाती थी तथा मंगल बार को सवा रूपये  या  सवा दो रूपये या बून्दी प्रसाद बाँट कर अपने आप को धन्य मानते थे ,वह हम ओस चाट रहे थे ।अब हम सुबह शाम 100 % ग्राम घी का दीपक जलाकर पाठ करते हैं ।हज़ारों वर्ष में धर्म पर चलते  हैं यह हम आब में धँस रहे हैं ।अर्थात् गट -गट  साधना रूपी पानी का गिलास पी रहे हैं ।मालिक ने तत्व ज्ञान अपने मुखारबिंद से सुनाया मैं उन की शुक्र गुज़ार हूँ ।मालिक अपनी कृपा बनाये रखना ।

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