जल म कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहि समाना ,यह तथ कह्यौ गयानी । भावार्थ— :जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है...
भावार्थ— :जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है ।इस तरह देखें तो ,बाहर और भीतर पानी ही रहता है ,पानी की ही सत्ता है ,जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है ,अलगाव नहीं रहता ,ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ।आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक है ,आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है ,अंतत परमात्मा परमात्मा की ही सत्ता है जब देह विलीन होती है ,वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है ,उसी में समा कर एकाकार हो जाती है।कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि,— :
भावार्थ— : गुरू को त्याग देने वाला जीव बिल्कुल नहीं बचेगा। नरक स्थान पर अग्नि के कुण्डों में जल-बल (उबल-उबल) कर कष्ट पाएगा। वहाँ अग्नि के कष्ट से नाचेगा यानि उछल-उछल कर अग्नि में गिरेगा।फिर करोड़ों जन्म विषधर (सर्प) की जूनी (शरीर) प्राप्त करेगा। सर्प के अपने अन्दर के विषकी गर्मी बहुत परेशान करती है। गर्मी के मौसम में सर्प उस विष की उष्णता से बचने के लिए शीतलता प्राप्त करने के लिए चन्दन वृक्ष के ऊपर लिपटे रहते हैं।फिर वही गुरू विमुख यानि गुरू द्रोही बिष्टा (टट्टी-गुह) में कीड़े मकोड़े का जन्म प्राप्त करता है।इस प्रकार गुरू से दूर गया प्राणी महाकष्ट उठाता है।यदि गुरू नकली है,तो उसको त्यागकर पूर्ण गुरू की शरण में चले जाने से कोई पाप नहीं लगता।
दर्शन साधु का ,मुख पर बसे सुहाग,दर्श उन्हीं को होत है ,जिन के पूर्ण भाग ।पहले तो मोहे ज्ञान नहीं था , प्रेम बना ना तेरे मैं ।दीन जान के माफ़ किजीयो ख़ता हुई जिन मेरे मैं।अवगुण ,भरे ,मेरे ,माफ़ करो,तकसीर के आ गए शरण तेरी, जब मैं था तब हरी है,मैं नाही ,सब अँधियारा मिट गया दीपक देखा माही ।
भावार्थ — : जब मैं अपने अहंकार मैं डूबा था ,तब प्रभु को न देख पाता ,लेकिन जब गुरू ने ज्ञान रूपी दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया ।तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया अज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा ।और आलोक में प्रभु को पाया।ब्रह्म भगवान ने कहा है ,कि वह परम अक्षर ब्रह्म है ,जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है ।ज्ञान दाता से अन्य हैं ,भगवान कबीर महाराज जी परमात्मा हैं ।उन की शुक्र गुज़ार हूँ ,शब्द रूपी नाम की दीक्षा ले कर मन की गहराइयों से सदैव उन की ऋणी हूँ ।तत्व ज्ञान ने मेरी आँखें खोल दी हैं ।
भावार्थ— : भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। संत तुलसीदास जी तो गुरु जी को मनुष्य रूप में नारायण यानी भगवान ही मानते हैं।
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।
भावार्थ—: गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करती हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोह रूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।गुरु हमारा सदैव हितैषी व सच्चा मार्गदर्शी होता है। वह हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचता है ।और एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। गुरु चाहे कितना ही कठोर क्यों न हो, उसका एकमात्र ध्येय अपने शिक्षार्थी यानी शिष्य का कल्याण करने का होता है।इस लिए हम हर रोज़ संध्या आरती के अंत में गुरु जी से प्राथर्ना करते हुए यह शब्द बोलते हैं।
मेरे गुरुदेव भगवान …….भगवान दियो काट काल की फाँसी।
अवगुण किये घनेरे,फिर भी भले बुरे हम तेरे,दास को जान के निपट हो नादान…….
मोहे बक्स दियों अविनाशी ,मेरे उठै उमंग सी दिल में,तुम्हें याद करूँ पल पल में ।
आप का ऐसा मक्खन ज्ञान…..हो ज्ञान यों जगत बिलोवे लास्सी ।
अपनी जीवन यात्रा को सफल बनाने के लिये सब से पहले अवश्य वक़्त निकालें
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