नरहरि लागी लौं विकार बिनु इंधन,मिले न बुझावन हारा ।में जानों तोही से ब्यापे,जरत सकल संसारा । पानी माहीं अगिन को अंकुर ,जरत बुझ...
नरहरि लागी लौं विकार बिनु इंधन,मिले न बुझावन हारा ।में जानों तोही से ब्यापे,जरत सकल संसारा ।
पानी माहीं अगिन को अंकुर ,जरत बुझावै पानी। एक न जरे जरे नौ नारी, युक्ति न काहु जानी ।
भावार्थ—:
सद्गुरु मनुष्य को पहला आदेश देते हुए ,समझा कर कहते हैं।कि हे नर हरि में लग हरि से ज्ञान,हरि ही तेरा नीज स्वरूप है।
मनुष्य को चाहिए ,कि अपने आप को पहचाने और यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करें। सद्गुरु कहते हैं ,कि हे मनुष्य देख तेरे अंदर बिना इंधन की दावाग्नि लगी है, देव कहते हैं, जंगल को और उसमें लगी हुई आग को दावाग्नि कहते हैं।जंगल में आग लगती है ,तो उसमें लकड़ी पत्ते कोयला इंधन आदि रहते हैं, परंतु जो दावाग्नी मनुष्य के भीतर लगी है ।उसमें अन्य कोई इंधन नहीं है, इसमें तो केवल मनोविकार भरे हैं।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, आशा, तृष्णा, चिंता, शोक ,आदि , की आग है। दावाग्नि जब लगते हैं तब उस में रहने वाले जीव उसी में घिर कर जल मरते हैं। कदाचित कोई जानवर उस से भागकर निकल भी सकता है ।परंतु मनुष्य के मनके दावाग्नि से बचने के लिए भागकर काम नहीं बनता क्योंकि मनुष्य जहां भी भागकर जाएगा वहां भी मन के अंदर मन में दाहाग्नी जलती रहती है ।क्योंकि वह तो मानो विकारो कि आग है ।मन तो सदा मनुष्य के साथ ही रहता है ,जब तक मन को शुद्ध नहीं किया जाए ,तब तक मन के दावाग्नि से बचने का कोई उपाय नहीं है।
कबीर परमेश्वर कहते हैं ,की इस आग को बुझाने वाले केवल मात्र एक सतगुरु हैं ।और वह तुम्हें मिले नहीं इसलिए तुम आज पर्यंपत इस दावाग्नि में जल रहे हो। वस्तु तो है सतगुरु अपना उत्तम आदर्शों एवं वचनों से साधकों को प्रेरित करते हैं ।और साधक उनसे प्रेरणा लेकर अपने मन को शुद्ध करने के लिए साधना करता है। इस प्रकार साधक का मन शीतल होता है।
सतगुरु कहते हैं ,कि मैं जानता हूं भली-भांति कि यह आग तुम्हीं से फैली हुई है ...घर में लगा दिया घर के चिरागों ने .....
क्या तुम्हारे मन में आग किसी दूसरे ने लगाई है ,ऐसा कदापि नहीं सोचना। कोई भगवान या ,कोई शैतान ,तुम्हारे मन में आग नहीं पैदा कर सकता। तुम अपने मन को खराब करते हो और रात दिन जलते रहते हो ,तुम्हारे मन में खराब होने के कारण बाहरी प्राणी पदार्थ साधन अवश्य बनते हैं ।परंतु यदि तुम ना चाहो तो कोई दूसरा साधन नहीं बन सकता। तुम्हारी अपनी गलती से दुर्बुद्धि से सब अपने मन के पाप से ही तुम्हारे मन के भीतर दाहाग्नी लगी है।....जरत सकल संसारा ....सारा संसार अपनी बनाई हुई आग में ही जल रहा है।
कबीर परमेश्वर कहते हैं ,की इस आग को बुझाने वाले केवल मात्र एक सतगुरु हैं ।और वह तुम्हें मिले नहीं इसलिए तुम आज पर्यंपत इस दावाग्नि में जल रहे हो। वस्तु तो है सतगुरु अपना उत्तम आदर्शों एवं वचनों से साधकों को प्रेरित करते हैं ।और साधक उनसे प्रेरणा लेकर अपने मन को शुद्ध करने के लिए साधना करता है। इस प्रकार साधक का मन शीतल होता है।
सतगुरु कहते हैं ,कि मैं जानता हूं भली-भांति कि यह आग तुम्हीं से फैली हुई है ...घर में लगा दिया घर के चिरागों ने .....
क्या तुम्हारे मन में आग किसी दूसरे ने लगाई है ,ऐसा कदापि नहीं सोचना। कोई भगवान या ,कोई शैतान ,तुम्हारे मन में आग नहीं पैदा कर सकता। तुम अपने मन को खराब करते हो और रात दिन जलते रहते हो ,तुम्हारे मन में खराब होने के कारण बाहरी प्राणी पदार्थ साधन अवश्य बनते हैं ।परंतु यदि तुम ना चाहो तो कोई दूसरा साधन नहीं बन सकता। तुम्हारी अपनी गलती से दुर्बुद्धि से सब अपने मन के पाप से ही तुम्हारे मन के भीतर दाहाग्नी लगी है।....जरत सकल संसारा ....सारा संसार अपनी बनाई हुई आग में ही जल रहा है।
कबीर परमेश्वर ने 332 शाखी में भी कहा है कि ....ई जग देखे जरते, अपनी-अपनी आग....अपनी बुराई के लिए इंसान स्वयं जिम्मेदार है ।कोई दूसरा कोई जिम्मेदार ठहराना गलत बात है।....अपनी कमाई आपका ना माई ना बाप .....का ,सतगुरु उक्त पंक्ति में गर्म पानी का बड़ा सटीक उदाहरण देते हैं। गर्म पानी में अग्नि का अंश होता है परंतु ऐसा गर्म पानी भी यदि जलती हुई आग पर डाल दिया जाए ,तो उसे बुझा देता है, इसलिए पानी गर्म नहीं था पानी में जो आग का अंश था वही गर्म था ।पानी का मूल स्वभाव ही शीतल है, वह कभी गर्म नहीं हो सकता ।इसी प्रकार जीव का स्वभाव भी शीतल है ,कभी विकार स्वरुप नहीं हो सकता ,उसमें तो विकार प्रशिक्षित है बाहर से पड़ा हुआ है। बिड़ी, सिंगार, तम्बाकू, मदिरा,मांस में सब मन के विकार हैं ,परन्तु स्वरूप नहीं। एक है वासना, यह नहीं जलती, जलती है तो साथ में नौ नारी मतलब नौ नाड़ियों का जलना।नौ नारी- पहुखा,पयस्विनी,गंधारी,हस्तिनी,कुहू,शंखिनी,अलंबुसा,गणेशीनी तथा वरुणी।सतगुरु कहते हैं कि 9 नारीयों से तो ग्रंथित शरीर एक दिन जल जाता है परंतु एक वचना नहीं जलती।
......मन मरी ना माया मरी मर मर गया शरीर। आशा तृष्णा ना मरी तो कहि गए दास कबीर।......वासना के न जलने से पुनः शरीर की प्राप्ति होती है लोग यह युक्ति नहीं जानते ,कि शरीर जलने से पहले वासना जल जाना चाहिए। सुखद जीवन तू वही है। जिसमें देह रहते-रहते वासनाओं का त्याग हो जाए। वासनाहिन जीवन आनंद का सागर है, शांति का अनंत स्वरूप है ।जिसकी वासनाएं क्षिण हो चुकी हैं, उसके लिए शरीर का रहना और ना रहना दोनों बराबर है ।मार्गदर्शन, सिर्फ़ भक्ति हैं ,शब्द रूपी नाम की कमाई कर के अपनी जीवन यात्रा को सफल बनाने का प्रयत्न करते रहें ,ताकि मन के विकारों को दूर कर सके।__:शेष कल
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