अनंत कोटी ब्राह्मड का ,एक रति नहीं भार। सद्गुरू पुरूष कबीरदास ,ये कुल के सृजन हार । दादू:- जिन मोकू निज नाम दिया, सोई सतगुरू ह...

अनंत कोटी ब्राह्मड का ,एक रति नहीं भार।
सद्गुरू पुरूष कबीरदास ,ये कुल के सृजन हार ।
दादू:- जिन मोकू निज नाम दिया, सोई सतगुरू हमार
दादू दूसरा कोई नहीं, वो कबीर सृजनहार ।
कबीर :-ना हमरे कोई मात-पिता, ना हमरे घर दासी,
:-कबीर :पानी से पैदा नहीं, श्वासा नहीं शरीर ,अन्न आहार करता नहीं, ताका नाम कबीर ।
कबीर :-ना हम जन्मे गर्भ बसेरा, बालक होय दिखलाया काशी शहर जल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया ।
कबीर :- सतयुग में सत्यसुकृत कह टेरा, त्रेता नाम मुनीन्द्र मेरा, द्वापर में करूणामय कहाया, कलयुग नाम कबीर धराया ।
कबीर :-अरबों तो ब्रह्मा गये, उन्नचास कोटि कन्हैया, सात कोटि शम्भू गये, मोर एक पल नहीं पलैया ।
कबीर :-नहीं बूढा नहीं बालक, नहीं कोई भाट भिखारी ,कहै कबीर सुन हो गोरख, यह है उम्र हमारी
कबीर :- पाँच तत्व का धड नहीं मेरा, जानू ज्ञान अपारा ,सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।
कबीर :- हाड- चाम लहू नहीं मेरे, जाने सत्यनाम उपासी ,तारन तरन अभय पद दाता, मैं हूँ कबीर अविनाशी।
कबीर :-अधर द्वीप ( सतलोक ) भँवर गुफा, जहाँ निज वस्तु सारा ,ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन भी, धरता ध्यान हमारा।
कबीर :-जो बूझे सोई बावरा, पूछे उम्र हमारी ,असंख्य युग प्रलय गई, तब का ब्रह्मचारी।
कबीर: धर्म दास मेरी लाख दोहाई, मूल ( सार ) शब्द बाहर न जाई ।
सार शब्द बाहर जो परही,बिच्ली पीढ़ी हंस नहीं तरही । तैंतीस अरब ज्ञान हम भाखा ,मूल ज्ञान गुपत हम राखा ।
मूल ज्ञान तब तक छुपाई ,जब लग द्वादश पंथ मिट जाई ।धर्म दास तोहि लाख दोहाई ।सार शब्द बाहर नाहि जाई ।
सार शब्द बाहर जो परि है। बिचलै पीढ़ी हंस नहीं तरि है।
युगन युगन तुम सेवा किन्ही। का पीछे े हम इहाँ पग देनी।
कोटिन जन्म भक्ति जब किन्ही। सार शब्द तब ही पै चिन्हा।
अंकूरी जीव होय जो कोई। सार शब्द अधिकारी सोई।
सत्य कबीर प्रणाम बखाना। ऐसे कठिन है पद निवाना।
कबीर :-अवधू अविगत से चल आया, मेरा कोई मर्म भेद ना पाया।
कबीर :गुरू बिना माला फेरते,गुरू बिन देते दान गुरू बिन दोनों निष्फल हैं,पूछो वेद पुराण।
कबीर: राम कृष्ण से कौन बड़ा ,उन्हों भी गुरू कीनह। तीन लोक के वे धनी,गुरू आगे आधीन।
कबीर,पीछे लागया जाऊँ थामे लोक वेद के साथ। रास्ते में सद्गुरू मिले ,दीपक दीनहा हाथ।
कबीर: गुरू बिन काहू न पाया ज्ञाना ,ज्यों ,थोड़ा भूल छड़ें मूढं किसाना।
कबीर:गुरू बिन वेद पढै जो प्राणी, समझे न सार रहे अज्ञानी।
कबीर:बलिहारी गुरू अपना ,घड़ी घड़ी सौ सौ बार ।मानुष से देवता किया करत ना लाई बार।
कबीर यह माया अटपटी ,सब घट आन अड़ी । किस किस को समझाऊँ या कूएँ भागं पड़ी।
यह संसार ममझदा नाही ,कंहदा शाम दुपहरें नूर ।गरीब दास यह वक़्त जात है रोवोंगे इस पहरे नूँ ।
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