हमारा दृष्टिकोण होता है ,कि दूसरे का सुधार करें भले ही अपना न हो। हम दूसरे को ही देखते हैं, अपने को नहीं देखते। मनुष्य को चाहिये क...
हमारा दृष्टिकोण होता है ,कि दूसरे का सुधार करें भले ही अपना न हो। हम दूसरे को ही देखते हैं, अपने को नहीं देखते। मनुष्य को चाहिये कि सर्वप्रथम जिस बात को अच्छा समझे उसका पालन दुनिया की परवाह न करते हुए करे।
एक पारसी विद्यार्थी थे, जो पूना के एक कालेज में पढ़ते थे। बाद में वे संन्यासी हो गये सन्देह वादी संन्यासी वे मुझ से इस उद्देश्य से मिलने आये कि देखें यहाँ क्या-क्या पोल है। गोरखपुर में तीन-चार दिन मेरे साथ रहने के बाद उन्होंने अपनी बात बताई कि, 'जब मैं छोटा था और हाई-स्कूल में पढ़ता था ।तो मेरे पिताजी, जो बहुत ही नेक इंसान थे ।मुझे नसीहत देते कि बेटा सच बोला करो, झूठ कभी नहीं बोलना चाहिये। वे झूठ और बड़ी-बड़ी बुराइयों का उक्तियों और इतिहास के दृष्टांत के साथ वर्णन करते। मेरे मन में बात जँच गयी और मैंने ऐसा करने का निश्चय कर लिया।
एक दिन कोई बाहर के व्यक्ति ने आकर पिताजी का नाम पुकारा। पिताजी ने मुझसे कहा-जाओ कह दो घर पर नहीं हैं। मैंने ऐसा ही किया और वह व्यक्ति लौट गया। बात मामूली-सी थी लेकिन मेरे मन में खटका लगा कि जो पिताजी मुझे प्रतिदिन सत्य का उपदेश देते हैं ।वही मेरे द्वारा झूठ बुलवाते हैं। मैंने आकर पिताजी से कहा कि आप तो मुझे सत्य-भाषण का उपदेश देते हैं। किन्तु जो आज आपने कहा इसका क्या अर्थ है ? पिताजी ने मुझे समझाया नहीं बल्कि मुझ पर गुस्सा होकर डाँटते हुए कहा ,कि तू मेरे सामने बोलता है ? कभी नहीं सुधरेगा। उन्होंने कहा कि मैं बोला तो नहीं परन्तु मेरे हृदय पर बड़ी बुरी छाप पड़ी कि यह क्या आचरण है ?
तदुपरान्त मैं पूना के एक कालेज में गया। चौथे वर्ष में अध्ययन कर रहा था। वहाँ एक पारसी प्रोफेसर थे जो अपने व्याख्यान में शराब की बुराईयों का वर्णन बड़े अच्छे ढंग से युक्तियों के साथ किया करते थे। पारसी, अधिकांशत: शराब पिया करते हैं। हम विद्यार्थियों के मन में यह बात बैठी कि शराब पीना बहुत बुरा है और इसे छोड़ देना चाहिये। बहुतों ने छोड़ भी दिया।
एक दिन हम प्रोफेसर साहब के घर गये तो वहाँ देखा कि वे शराब पी रहे थे। हमने उनसे बड़ी विनम्रता से पूछा कि आप तो उक्तिपूर्ण अच्छा व्याख्यान देते हैं और स्वयं शराब पीते हैं। वे भी हम पर खीझ कर रोष पूर्वक बोले कि, 'तुम लोग बेवकूफ हो। किसी के व्यक्तिगत जीवन का सार्वजनिक जीवन से क्या सम्बन्ध ? कालेज में प्रोफेसर के नाते हम जो व्याख्यान देते हैं वह जन-साधारण में कहने की बात है और घर में हमारा व्यक्तिगत जीवन है,यहाँ हम जो चाहे सो करें। हम बाहर जायेंगे तो आज भी वही व्याख्यान देंगे कि शराब नहीं पीना चाहिये परन्तु घर में मेरी मर्जी। तुम सभा में बोल सकते हो यहाँ बोलने का अधिकार नहीं है। अतएव, जहाँ ऐसा आचरण हो कि जगत को सुधारने के लिये व्याख्यान दिये जायें ।और अपने सुधार की चेष्टा न की जाये तो फिर कौन, क्यों और किस लिये सुधरेगा ?
यह तो हर घर की कहानी है। कहते कुछ,और करते कुछ,जब हम खुद नहीं बदलेंगे, तो समाज को कैसे बदल सकेंगे । यही life experience है। अपने को बदले ,अच्छे बने समाज का सुधार करे। ज़िन्दगी में नेकी करके नये इतिहास में सहयोग दे ।
जो आप को अच्छा नही लगता वह व्यवहार दुसरो से न करे । कहने और करने बड़ा अन्तर् होता है ।अपने मन की अवाज सुने
निर्णय आप के हाथ मे हैं । हमेशा सच्चाई की जीत होती हैं । संसार की पूर्ण यूनिवर्सल सत्य पर स्थिर हैं ।नये इतिहास का
निर्माण सत्य पर ही होगा ।सत्य की पुकार मालिक के घर जल्दी सुनी जाती है ।
शेष कल —:
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